पहाड़ी भाषा

दुनिया बहुत बड़ी है। इतनी विशाल कि इसे पूरी तरह जान पाना नामुमकिन है। फिर इंसानों के पास अब वक्त भी कहां है। लोग अब खुद को भी भूलने लगें हैं। अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं। ऐसा ही कुछ हाल हिमाचली पहाड़ी भाषा का है। यूं तो इस दुनिया में डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा लोग हिमाचली बोलते हैं लेकिन फिर भी हालात बदतर हैं। हिमाचल तो 1948 में ही राज्य बन गया था। पहाड़ी अब तक भाषा नहीं बन पाई। कारण साफ है। दरअसल हमारे देश में जरूरत और जनाकांक्षांओं से ज्यादा महत्व नेताओं की मर्जी का होता है। यह हाल तब है जब राज्य का गठन ही भाषा के आधार पर हुआ था।

हिमाचल के नेताओं को पहाड़ी में कोई दिलचस्पी नहीं है। वरना आज प्रदेश हर क्षेत्र में अव्वल है। बेहतरीन शिक्षा, आश्चर्यजनक साक्षरता, चौबीस घंटे बिजली, दुर्गम इलाकों में भी सड़कें, देश में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय, अपराध शून्यता और चौतरफा विकास। हिमाचल ने हर जगह चौंकाने वाले अन्दाज में झण्डे गाड़े हैं। लेकिन दिल की धड़कन को ही सुना। भाषा के बारे में कभी सोचा ही नहीं। हमारे नेता साहित्यक जो नहीं रहे। इसका खामियाजा भी हमने खूब भुगता है। अब भी सह रहें हैं। दुनिया भर में हिमाचल महज पर्यटन स्थल बन के रह गया है। अपना अस्तित्व खो चुका है। प

हाड़ी भाषा को सम्मान न मिल पाना घातक सिद्ध हुआ है। ऐसा नहीं है कि कोई प्रयास ही नहीं हुआ। पहाड़ी के लेखकों ने साठ साल पहले ही लिखना शुरू कर दिया था। पहाड़ी का अपना विपुल साहित्य है। इसमें अब तक तकरीबन 300 कविता संग्रह, 100 कहानी संग्रह, 150 नाटक व जोड़ा जैसे उपन्यास लिखे जा चुके हैं। साहित्य अकादमी और नेशनल बुक टस्ट के तहत भी पहाड़ी काव्य मौजूद है। भवानी दत्त शास्त्री की श्रीमद्भागवत गीता, डा प्रत्यूष गुलेरी की हिमाचली कहानियां और लोक कथाएं, डा प्रेम भारद्वाज की कविता सिरां, मौलू राम ठाकुर का हिमाचली भाषा का मोनोग्राफ, पंकज का महाभारत और संसारचन्द का माया पहाड़ी के महाकाव्य बने हुए हैं। दुर्भाग्य से यह सब प्रयास सीमित हैं। सच यही है कि पहाड़ी भाषा नहीं है। यह महज एक बोली है।

पहाड़ी का असीमित ज्ञान मौखिक है। डा प्रत्यूष गुलेरी कहते हैं कि पहाड़ी को साठ साल पहले ही भाषा का दर्जा मिल जाना चाहिए था। लोग कहते हैं कि पहाड़ी में विविधता है। हर चार कोष पर इसका रूप बदलने लगता है।श्डा गुलेरी इसका भी जबाव देते हैं। वे कहते हैं कि यही तो अज्ञानता है। भाषा के प्रति नासमझी है। दरअसल हर भाषा में बोलियां होती हैं। पहाड़ी में भी हैं। हिन्दी, बांग्ला, तमिल, गुजराती, मराठी, तेलगू आदि भाषाओं में भी बोलियां हैं। दरअसल यही बोलियां भाषा को समृद्ध बनाती हैं। सरकार को कम से कम पहाड़ी में शोध और एमए आदि की शुरूआत करनी चाहिए।

हिमाचल के समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को भी पहाड़ी के लिए स्थान मुहैया कराना चाहिए। इसकी सख्त जरूरत है। आजकल इंटरनेट का जमाना है। माई हिमाचल जैसी वेबसाइटें प्रदेश को समर्पित हैं। इन्हें भी पहाड़ी को महत्व देना चाहिए। पहाड़ी बोलने वालों को भी अपनी मातृभाषा में ब्लॉग बनाने चाहिए। इसी प्रेरणा से हिमाचली पहाड़ी को समर्पित पहला ब्लॉग शुरू किया गया है। अभी यह आरम्भिक चरण में है।

ब्लॉग देखने के लिए http://galsuna.blogspot.com/ पर क्लिक करें. यह प्रयास बहुत ही छोटे स्तर पर शुरू हुआ है. भले ही इसमें कमियां हों लेकिन आपके सहयोग से हर बाधा पार कर ली जाएगी.
धन्यवाद सहित.

http://galsuna.blogspot.com/

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