बंधन में बंदा, खुला सा खुदा! बांसुरीवादक राजेंद्र सिंह गुरुंग


धर्मशाला के राजेंद्र सिंह गुरुंग से एक बातचीत| नेपाली कवी, अध्यापक और समाज सेवी मगन पथिक के पुत्र राजेंद्र सिंह के नाम से कम और भोलू के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं

अनूप :सबसे पहले यह बताइये कि कब और कैसे लगा कि संगीत ही सब कुछ है?

राजेन्द्र : (याद करते हुए) यह बात है …. 1976 की। वैसे तो 1975 में जब मैंने कॉलेज में एडमिशन ली थी, और मैं बी.कॉम में था, तब मैडम शशि शर्मा थीं (आप जानते ही हैं उन्हें)। तो उनका बड़ा प्रोत्साहन रहा। और मास्टर चुन्नीलाल जी का भी – जो तबले के थे। और इसी बीच में मंडी में एक यूथ फेस्टीवल हुआ था। वहाँ मुझे बांसुरी के एक कलाकार को सुनने का सौभाग्य मिला …. तो पता लगा कि क्लासिकी संगीत कैसे बजाया जाता है बांसुरी में। एक रात वे किसी कमरे में बैठ कर कन्सर्ट कर रहे थे तो मुझे भी सौभाग्य मिला और पवन थापा भी वहीं थे। वे चाहते थे कि मैं उस फ्लूटिस्ट से मिलँ। वे थे दयाल सिंह राणा जो बाद में ए.आई.आर रोहतक (रेडियो) में ए ग्रेड के कलाकार रहे, बांसुरी में। अब तो वह रहे नहीं। तो पहली अनुभूति तो मुझे तभी हुई कि बांसुरी में मुझे अब कुछ करना चाहिए। उन्होंने मुझे कुछ टिप्स भी दिए थे वहाँ रहते हुए।

अनूप : बस यही प्रस्थान था क्या?
राजेन्द्र : नहीं .. और भी बातें थीं। वहाँ मैडम ने मुझे आर्केस्ट्रा में तो शामिल किया ही था और मुझे काफ़ी अधिकार दिया था कि तुम स्वच्छंद उसमें विचरण करो। और मुझे आयडिया भी दो। तो उन्होंने मुझे सचमुच बहुत प्रोत्साहित किया। आर्केस्ट्रा राणा जी ने भी सुना और हम लोगों को ‘हाइली कमेंडेड’ का पुरस्कार भी मिला। तब से मेरी एक पहचान बन गई। लोग जानने लगे कि यह है कोई .. (हँसते हैं)।

अनूप : उससे पहले क्या कुछ भी न था?
राजेन्द्र : उससे पहले तो मैं वैसे ही फिल्मी गाने या लोक धुनें या क्लासिकल बेस्ड फिल्मी गाने बजाता था। या राग के बारे में भी कोशिश करता था पर कोई दिशा नहीं थी। न ही यह पता था कि इसे कैसे करना है। फिर ऐसा हुआ कि 1976 में हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन में (जो देवी तलाब जालंधर में होता है) शशि शर्मा मैडम हमें ले गईं, एक एजूकेशनल टुअर के रूप में। वह सौ साला उत्सव था जब नौ दिनों तक दिन-रात कार्यक्रम चले। तो वहाँ जाकर एक दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया। कैसे कैसे कलाकारों को सुना। काबुल के मुम्मद हुसैन सारंग बड़े जाने माने गायक थे। फिर पंडित रवि शंकर, विलायत खां साहब, उस्ताद अल्ला रक्खा, पंडित शामता प्रसाद, किशन महाराज …. यानी भारत के महान रत्न वहाँ आए थे। 1 दिन उनको दिन-रात सुनने पर, देखने पर मुझे वाकई लगा कि संगीत तो यह चीज़ है … तो वहीं यह अनुभव गहरा हुआ कि संगीत ही सब कुछ है।

अनूप : चौरसिया जी से वहीं मुलाकात हुई?
राजेन्द्र : जी हाँ, पहली बार 76 में वहीं उनको सुना। 75 में सुना था दयाल सिंह राणा को। और 76 में चौरसिया जी को सुना तो मैं तो बस ….मैस्मराइज्ड़ ही रह गया। लगा कि ऐसा दिव्य संगीत तो हो ही नहीं सकता ! कि यह तो मेरी कल्पनाओं से भी परे है। तो फिर लगा कि मुझे कहां उड़ान भरनी है, और उसके लिए कितना श्रम करना होगा।

यहाँ तक मानो ईश्वर ही मुझे ले आए – मानो यह सब किसी पूर्वयोजना के तहत था। चुन्नी लाल जी के रूप में शायद वही मिला – ईश्वर की अंगुली थी वह। उन्होंने शुरु से … हर तरह से …. रियाज़ भी करवाया और स्वर की बारीकियाँ, और मन की बारीकियाँ भी कैसे होती हैं – समझाया। यह अलग ही तालीम थी।

अनूप : यानी ….
राजेन्द्र : मैंने देखा है कि संगीत की तालीम जो स्कूलों में होती है, या किसी संस्था में जाकर – वो काफ़ी नहीं होती। सीखने के लिए एक ब्रॉड आउप्लुक चाहिए। मेरे गुरु चुन्नी लाल जी कहते थे।

बंधन में बंदा – खुला सा खुदा ….
यानी स्वर को भी एक खुले रूप में देखो आप …. और यों जब शुरु करवाया उन्होंने … जबकि तब तक मुझे सरगम वगैरेह का काफ़ी ज्ञान था … बजा भी लेता था … पर उन्होंने कहा कि अब ज़ीरो पर आ जाओ। सब कुछ भूल जाओ और अब – स- से शुरु करो – उसी की साधना करो और कुछ नहीं। मुझे याद है कि जब मैं बी.ए. वन में था, तो वहीं मंदिर में कई बार शंख जैसी आवाज़ गूंजती रहती …. घंटों तक। चार चार घंटे तक बैठकी … फिर आराम … फिर चार घंटे … फिर आराम और फिर दो घंटे। यों दस घंटे तक रियाज़ करता था। एक साल तक तो स को ही साधा। यानी धन्ने जाट वाली बात कि इसी में भगवान है। इससे पहले उन्होंने काफ़ी लेक्चर भी दिया मुझे।
यानी किसी भी कला में मन की स्थिरता … और उसके लिए एक माहौल का होना बड़ा ज़रूरी है। जो कुछ मिलना था शायद तभी मिला। नहीं तो जितनी जल्दी मैंने इन चीज़ों को जाना और समझा, और एकदम से लाइम लाइट में आया … वह संभव ही नहीं था।

आप तो जानते हैं कि मैं आम सा आदमी था – एक बेहद आईनेरी परिवार से था। बस कुछ मिलना था मुझे तो जैसे ज्ञान के कपाट एक साथ खुलने लगे थे। गुरु जी ने ही वे खोले थे। यह आध्यात्मिक करामात थी। फिर हम लोग सत्य साई बाबा के अभियान से भी जुड़े थे। उनका भी आशीर्वाद था। उसी सिलसिले में हमें शिवकुमार जी जैसे गुरुजन मिले। तब यह अहसास हुआ कि संगीत में कदम रखना है तो गहरे पैठ कर …. सतही ढंग से नहीं …. और गहराई दिखाने वाले भी मिल गए।

अनूप : यानी चुन्नी लाल जी …
राजेन्द्र : हाँ, वे कहा करते … भोले तूं मैनूं भुल जाणा एें। कहते, बताओ आज तेरे साथ है कोई कोई जानता है तुझे? …. मैं कहता … नहीं ..। वे कहते कोई टाइम आएगा तू मुझे भूल जाएगा। उनका खुद का इतना बड़ा परिवार था, अनेकों दु:ख कष्ट थे, अकेले कमाने वाले थे। पता नहीं उन्हें मुझमें क्या दिखा कि उन्होंने सोच लिया कि इसे मैंने बनाना है।

अनूप : लेकिन आप भी तो समर्पित रहे।
राजेन्द्र : शायद हाँ, उन्होंने जो कुछ कहा, मैंने उसे गांठ बांध लिया, शत-प्रतिशत – ब्लाईंडली ….

अनूप : आजकल कहां हैं वे?
भोलू : वो अब …. ही इज़ नो मोर … गुज़र गए। 2001 में जब मैंने पीएचडी सबमिट की, उसी बीच पैगाम मिला कि मास्टर जी…

अनूप : कहाँ थे वे, कहाँ सैटल हुए थे?
राजेन्द्र : गुरदास पुर में था न उनका घर। तो बस तब से साधना का क्रम जारी रहा। मैं दयाल सिंह राणा के पास भी जाता रहा … लंबा सम्प रहा और काफ़ी कुछ सीखा मैंने उनसे …. कि रागों का विस्तार कैसे करते हैं, लाइट म्यूज़िक क्या है। हमारा संबंध 1990 तक रहा क्योंकि 1990 में वे गुज़र गए – यानी मृत्युपर्यन्त ….

अनूप : कहाँ होते थे वे?
राजेन्द्र :वे शिमला के एक स्कूल में नृत्य-संगीत सिखाते थे। कभी वे उदयशंकर (रविशंकर के भाई) के ट्रप में भी रहे थे – उनसे शिक्षा भी पाई थी और विजय राघव राव जो जाने माने बांसुरीवादक हैं उनसे भी सीखे थे। और सौभाग्य से मुझे भी उनका सान्निध्य मिला। और मैं जगह जगह संगीत के आयोजनों में भाग लेने लगा।

अनूप : और कॉलेज की पढ़ाई?
राजेन्द्र : चल रही थी। उसमें मैंने संगीत विषय ले लिया – विद सितार इन्ट्रू मेंट। यानी 1976 से संगीत की अकादमिक शिक्षा भी पाई। पहले तो मैं कामर्स में था उसमें (हँसने लगते हैं) थोड़ा गड़बड़ हो गया। फिर आर्ट स्ट्रीम में आया।

अनूप : यानी हमें पता नहीं होता है कि रुचि क्या है और हमारी दिशा क्या है?
राजेन्द्र : हाँ, वहीं तो … पिता ने ज्योतिष के हिसाब से कॉमर्स दिला दिया। मैंने बदल कर साईंस ले ली – वह भी …. यानी 1976 के बाद जाकर सही दिशा मिली कि मैंने क्या करता है। तो फिर यहाँ ग्रैजुएशन की। फिर जब बाबा जी के पास गए तो उन्होंने एम.ए करने को कहा। मैं तो चाहता था कि चौरसिया जी के पास चला जाऊँ। क्योंकि इस बीच मेरी 1978 में उनसे फिर मुलाकात हुई थी, जालंधर में। मैेंने उन्हें बांसुरी सुनाकर पूछा कि बताइये मैं इस लाइन में आगे जा सकता हूं या नहीं।

मास्टर चुन्नी लाल और उनकी पत्नी के साथ राजेंद्र और उनका बेटा

उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे स्काईला हॉटेल में बुलाया, वहां सुना और कहा कि तुम में प्रतिज्ञा है, पूंँक अच्छी है – मगर तुम गायन सीखो क्योंकि संगीत में गायन बड़ा प्रमुख होता है। भाव की अभिव्यक्ति उसी से होती है। फिर संगीत में शब्द भी होते हैं, अच्छा गायन जानने वाला वादन के साथ अच्छी तरह त्याग कर सकता है।तो मैंने उनकी बात सुनी। फिर सत्य साईं बाबा ने 1979 में जब कहा – ”तुम म्यूज़िक में एम.ए. करता है”। तो मैंने यह ठान ली कि यही करूंगा। और ईश्वर कृपा से चौरसिया जी फिर 1979 में, होलियों में अमृतसर के दुर्गयाना मंदिर की राग सभा में मिले।

अनूप : यह संयोग कैसे हुआ?
राजेन्द्र : मेरी एक विदेशी शिष्या थी, म्यूरियल नाम था उसका, फ्रेंच थी। वह मुंबई गई थी और जाने से पहले उसने चौरसिया जी का एडरेस मांगा। मेरे साथ उनका विजिटिंग कार्ड था ही, मैंने उसे नंबर वगैरेह दिया था। वह वहीं रुकी उनके पास … उन्होंने उसे बहुत इन्सपायर किया। पूछा भी कि गुरु कौन हैं। उसने मेरा नाम लिया तो उन्होंने कहा कि अपने गुरु को बताना कि होलियों में अमृतसर आऊँगा, उन्हें लेकर आना। यों वह लौटी और बोली कि आज ही चलना है पाँच बजे की बस से पठानकोट, और फिर अमृतसर ….. चौरसिया जी ने बुलाया है। रात को पहुंचे तो प्रोग्राम खत्म हो गए थे पर अगले दिन सुबह ही चौरसिया जी से मिलने गए। उन्होंने कहा कि कुछ सुनाओ। मैंने बजाया। उन्होंने एलाबोरेट करने के बाबत टिप्स दिए। फिर पूछा कि वह वह गायन की तालीम का क्या हुआ। मैंने कहा कि मैं धर्मशाला जैसी जगह पर रहता हूं, अपनी कहिए क्या करूं – मार्ग आपही दिखाइये।

अनूप : हां धर्मशाला में तो शास्त्रीय संगीत की वैसी कोई परंपरा थी नहीं?
राजेन्द्र – हां, भौगोलिक परिस्थिति में कैद था। तो फिर चौरसिया जी ने गुरु शंकर लाल मिश्रा का रेफ़ेरेंस दिया। वे इलाहाबाद के थे और उनके शागिर्द शहनाई वादक भोलानाथ थे। चौरसिया जी शुरु में उनके शिष्य रह चुके थे और शंकरलाला मिश्रा जी को भी दादा गुरु के रूप में मानते थे। तो उन्होंने एक रुक्का उनके नाम लिखकर मुझे मिलने को कहा। लिखा कि ‘इसे भेज रहा हूं, संगीत में सच्ची रुचि है, बांसुरी अच्छी बजाता है, गायन की तालीम आप दीजिए। बाद में मैं इसे गाइड करूंगा ….’ यों रुक्का लेकर मैं उनसे मिला।

अनूप : इलाहाबाद गए?
राजेन्द्र : नहीं, इधर ही जालंधर में। वे ए.पी.जे. फाइन आट्र्स कॉलेज के प्रिंसिपल थे और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में फैकल्टी ऑव फाइन आर्ट्स के डीन थे। तो जब चौरसिया जी की रिकमेंडेशन हो, शंकर लाल मिश्र जैसे नानी व्यक्ति ने भेजा हो तो फील्ड खुद ब खुद बनता जाता है। और वह बनता गया। पंजाब और आसपास के इलाकों के संगीत के लोगों से जुड़ने लगा।
यों जो मिला, शायद मिलना था मुझे। और गहरे से मिला – गहरे उतरा, उतारने वाले भी मिले। चमत्कार ही समझो इसे।

अनूप : अध्यापन की तरफ कैसे आना हुआ?
राजेन्द्र : मिश्रा जी ने ही कहा कि ग्रेजुएशन किया है तो एम.ए. भी कर लो, नौकली के लिए अच्छा रहेगा। क्योंकि जीवन भी तो चलाना है। स्ट्रगल करने के लिए पेट में रोटी भी तो चाहिए। याें एम.ए. की, एम.फिल की … साथ साथ उनसे तालीम लेता रहा।

अनूप : तालीम के बारे में बताइये कुछ?
राजेन्द्र : जालंधर में ही बनारस घराने के एक सितारवादक थे – वीरेन्द्र सर – जो सितार की क्लास लेते थे। वे विलायत खां साहब के शार्गिद थे। एम.ए. में उन्होंने पढ़ाया। और उनसे मैंने वादन अंग को समझा।

अनूप : वादन अंग —?
राजेन्द्र : हाँ, क्योंकि सितार में एक बीच अंग होता है, वीणा के सुरों की तरह, धु्रपद-धमार की तर्ज़ पर। पहले तो गायन ही होता था ना ! उसी को वीणा ने फौलो किया। तो बीन अंग की चीज़ें जैसे ध्रुपद में नामे तोम का विस्तृत आलाप होता है, उसके बाद कंपोज़ीशन गाते हैं। सितार ने भी ख्याल अंग को अपनाया था – नामे तोम, जाड़े आलाप, जाड़े इपाला करके विस्तृत आलाप होता था। किसी राग की अवतारणा के लिए एक घंटा यह चाहिए। तो उनसे वादन अंग टेकनीक, बीन अंग की, ध्रुपद अंग की सीखने का मौका मिला।
फिर सीखने की यह प्रतिक्रिया क्लासरूम तक तो सीमित थी नहीं। उनकी भतीजी भी पढ़ती थी। बहुत टैलेंटेड थी। अक्सर उनके घर चले जाते थे, उनके पिता ओम प्रकाश खुद लेक्चरर थे कन्या महाविद्यालय में। तो वहां भी संगीत का माहौल था। फिर उनमें एक हरविंदर थे। बहुत अच्छी सितार बजाते। वे भी विलायत खां से सीखे थे। अब तो ए क्लास आर्टिस्ट हैं। पहले वे काल्का में थे।
सो कहने का मतलब यह कि व्यक्ति एटमसफेयर से सीखता है। एक खुला वातावरण था। ए.पी.जी कॉलेज का बड़ा नाम था। ओमप्रकाश थे, गिरिजा व्यास थीं, विरजू महाराज के भांजे वहीं थे। बनारस से दो बड़े तबलावादक थे। तो माहौल ही रात दिन संगीत का था। कॉलेज में कभी फोक तो कभी क्लासिकल कन्सर्ट चला करते।

अनूप : आप बड़े पते की बात कह रहे हैं।
राजेन्द्र : और हरिवल्लभ सम्मेलन तो होता ही था। यों दिमाग खुल गया मेरा …. मेरे गुरु जी कहते (चुन्नीलाल ‘भोल्ले ! एद्दां ऐ न, जे हल्लाशेरी बहुत वॅडी चीज़ हुंदी ए’। अगर किसी से कहें कि ओए डूब गया, डूब गया…. तो वह डूब जाता है और कहें कि – शाबाश – लांघ गया … ऐ लांघ गया … तो वह लांघ जाता है। तभी वे मुझे प्रेरित किया करते। कहते ”तूं चौरसिया नाल बजाऊंगा। यार कई बार तो तेरे सुर इतने बारीक लगते हैं कि क्या कहूं। उन्होंने जैसे अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया मुझ पर। रात रात रियाज़ कराते थे। यहीं नीचे शामनगर में विमला निवास में रहते थे। किसी से भी बात करते तो मेरा जिक्र करने लगते। लोग कहते – यार तूं भोल्ले दी गॅल ला छॅडदां, कोई हारे गल कर। मुझे कहते यार तू लता ताल बजाऊंगा एक दिन। देख लई, ज़ाकिर नाल बजाऊँगा।

अर्धांगिनी के साथ

अनूप : आपका हौसला सदा ऊँचा रखते थे।
राजेन्द्र : हां, मंज़िल ही ऊंची दिखाते थे। उरे तो देखने ही नहीं दिया। गुरु विद्यार्थी को तलाशता है, ज्ञान तो फिर स्वत: ही आता है। सुनते सुनते, देखते हुए, बातें करते हुए। बताइये एकलव्य ने कहाँ एक एक चीज़ की शिक्षा पाई थी। बस श्रध्दा और गुरु के प्रति समर्पण – इम्प्लीसिट केथ के भीतर से आ जाए इच्छा ज़रूर पूरी होती है।
अनूप : इसकी कोई मिसाल?

राजेन्द्र : वे कहते मैं काला, मेरी जुबांन काली। मैं जो कहता हूं, होगा। कहा कि अगले साल तू बचाएगा हरिवल्लभ सम्मेलन में। मैं अविश्वास से कहता – मैं !!! मैं तो जाणदा ई कख नई ! इतनी बड़ी स्टेज जहाँ लोगों को देख सिर श्रद्धा से झुक जाते हैं – वहां मैं कैसे बजाऊँगा। बोलते – देख लई। मैं काला – मेरी जुबान काली।
अनूप : सच हुआ यह? जुबान पूरी हुई उनकी?
राजेन्द्र : बस एक साल पूरी मेहनत की। शाम नगर के उनके घर का दरवाज़ा तीन-साढ़े बजे खटका देता। चाय खुद बनाता। सुबह के सात साढ़े सात तक अभ्यास करता। फिर वे भी कॉलेज के लिए तैयार होते, मैं भी। फिर 77 में हर वल्लभ में युवा कलाकारों की प्रतियोगिता में बजाया ( अब भी होती है विभिन्न आयु स्तरों पर) तो 77-78 में मुझे स्वर्ण पदक मिला। और उत्तर भारत के उस महान आयोजन के मंच पर बैठने और पदक पाने की हवा बन गई। हिमाचल-पंजाब-हरियाणा और दिल्ली तक भी लोग, संगीत जगत के, पहचानने लगे। चौरसिया जी का वरद हस्त भी मिला था।

अनूप : बाकी पढ़ाई पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा?
राजेन्द्र : मैं नहीं जानता कि कैसे मैं पार उतर आया। कैसे इंग्लिश में पास हुआ, कैसे हिस्ट्री के समुद्र में तैर गया। शायद यह शिवकुमार जी का प्रताप था। वे कहते बस ग्रेज्युएशन कर लो फिर संगीत में अपने हिसाब से बढ़ते रहना। चुन्नी लाल जी भी कहते-पढ़ जा, पढ़ जा, तूं ता पढ़ जा। मैं तो अनपढ़ हूं। मेरे मन में भी यह गर्व नहीं आया कि मुझे क्या ज़रूरत है कि मैं यह रुखे विषय पढँ।

अनूप : चुन्नी लाल जी औरों को भी सिखाते थे?
राजेन्द्र : हाँ, गुरु जी ने संगीत विद्यालय चलाया था – ‘कॉस्मिक म्यूज़िक स्कूल’ विदेशी आते उसमें। 76 तक तो मैं भी रहा, उसके बाद भी वे चलाते रहे। मैं पढ़ने चला गया। पहले बांसुरी और सितार विदेशियों को सिखाता था। सोचिए कितनी जल्दी पिकअप किया होगा कि दूसरों को सिखाने लगा। गुरु जी कहते टीचिंग से बहुत कुछ आता है। सोचिए एक अनपढ़ व्यक्ति का क्या विज़न था। कहते इन्हें पढ़ाकर तुम्हें अंग्रेजी आ जाएगी, तुमने तो आगे बढ़ना है, भ्रमण करना है। झिझक मिटाने के लिए उसी परिसर में शनिवार को कन्सर्ट रखा करते। मीनू कॉटेज में, तिब्बती लायब्रेरी के नीचे-काई 30-35 कमरे थे जहाँ विदेशी रहते। कहीं मैं भी सितार-बासुंरी की कक्षाएँ लेता, परफार्म भी करता। कैसा बजाता था पता नहीं …. पर ठीक ही रहा होगा … (हँसते हैं)

अनूप : तभी तो लोग आते भी थे।
राजेन्द्र : इससे भी एक पहचान बनीं, कि यह तो विदेशियों को सिखाता है। जैसे दर्ुग्याना मंदिर अमृतसर में म्यूरियल को देखकर एक तबला वादक उठ खड़े हुए। मुझे बड़ा उस्ताद मान बैठे और बोले ! आइये आइये उस्ताद जी ….

अनूप : तो इस सफ़र में कई सरपरस्त रहे?
राजेन्द्र : हाँ, 74 में हायर सेकेंडरी के बाद ही यह सिलसिला चल पड़ा था। जब मैंने पूछने पर पिता से कहा कि संगीत सीखना चाहता हूं। पहले पहल देशबंधु जी से, फिर उनके शिष्य कृष्णदत्त शर्मा से। फिर कोटखाई चले गए और बहुत अर्से बाद लौटे। और फिर शंकरलाल मिश्रा मिले, वीरेन्द्र सर मिले, और मिले जालंधर रेडियो के शहनाई वादक शाम लाल। उनके पिता नंदलाल जी बिस्मिल्लाह खां के समकालीन थे। खां साहब को तो बड़ा नाम मिला, वे शहनाई के पर्याय ही बन गए। लेकिन नंदलाल जी भी उसी स्तर के थे। पर नाम – यश तो ईश्वर के हाथ में है।

अनूप : आप शाम लाल जी के बारे में कह रहे थे।
राजेन्द्र : हाँ, तो शामलाल जी भी बड़े भले मानुस, बड़े सज्जन पुरुष थे। उनसे मिलने पर सुशिर वाद्य की जो फूंक की टेकनीक होती है, वह उनसे सीखी। वे मेरे घर आ जाते, टूटी मंजी और बैठ कर सिखाते, इतवार को भी आ जाते। कहते यह तूने क्या कर दिया है मेरे अंदर। लोग तो मिठाई लेकर आते हैं घर कि कुछ बताइये और हम नहीं सिखाते और तेरे लिए खुद जाता हूं।

अनूप : तो क्या यह था यह जो गुरुओं की इतनी मेहरबानी हुई।
राजेन्द्र : शायद मैं विनम्र था – कह नहीं सकता। उन्हीं के कहने पर मैंने 88 में रेडियो का अडिशन दिया ! और पास भी हुआ ! उन्होंने पूरा पहरा, पूरी कांट छांट के साथ तैयारी करवाई और फिर दिल्ली में भी ऑडिशन हुई। रेडियो प्रोग्राम मिलने लगे। मुझे साल में चार प्रोग्राम मिलते थे। मैं बी.हाई. ग्रेड का था।

अनूप : ग्रेड उससे आगे बढ़ा?
राजेन्द्र : नहीं मैंने कोशिश ही नहीं की। पारिवारिक परिस्थितियाँ, दूसरे झमेले, नौकरी भी बदलती रही। पहले धर्मशाला कॉलेज, किर सेंट्रल स्कूल डलहौजी, गर्ल्स स्कूल और अब पालमपुर में हूं।
अनूप : शिमला में युवा कलाकार के रूप में रजिस्टर होने और जालंधर में आर्टिस्ट के बतौर तो आप बजाते रहे। रेडियो के अलावा भी कन्सर्ट करते हैं?
राजेन्द्र : हाँ वे तो चलते रहे। जैसे नामधारियों का प्रोग्राम होता था। बाबा जगजीत सिंह खुद बड़े मर्मज्ञ हैं संगीत के। नामधारियों को उस्तादों के पास भेजते हैं। और भी कई प्रोग्राम किए हिमाचल, पंजाब में।

अनूप : अब क्या स्थिति है?
राजेन्द्र : संगीत में तब गुडविल खत्म हो जाती है जब आप दूसरी लाइन में जाते हैं। अब मेरा मुख्य व्यवसाय अध्यापन है। फिर भी जो जानते हैं, बुलाते हैं। चार पाँच साल पहले कुछ वैज्ञानिक आए थे। उन्हें थोड़े समय में भारतीय संगीत की झलक देती थी तो फोक के लिए पंजाब से और क्लासिकल के लिए मुझे बुलाया था। फिर मैं भी अब सेलेक्टिव हूं। और कला स्वान्त:सुखाय तो है ही।
लेकिन अगर टीचिंग में न होता – कार्यक्रम करके ही जीविका चलानी होती तो बात अलग होती। ज्ञान तो है, उसका मंथन तो किया करता हूं। मुझे कमी का अहसास नहीं होता – तस्वीर सम्पूर्ण लगती है। लेकिन आगे भाग्य की बात होती है।

अनूप : मैं सीधे सीधे ही पूछना चाहता हूं, कि जितना आपने सीखा है, जितना बजाया है कि अगर आप हिमाचल में न होकर किसी बड़े शहर में होते तो आपका स्थान कुछ और होता।
राजेन्द्र – हाँ, यह तो स्वाभाविक है, क्योंकि ….

अनूप :जब हम भाग्य की बात करते हैं तो इसका संबंध कहीं छोड़ देने से तो नहीं है। अगर आप बड़े शहरों में जाने की सोचते । नौकरी की तलाश पंजाब या फिर दिल्ली में करते तो मौके ज्यादा मिलते। और जानना चाहँगा कि ऊँचा कलाकार और नामी कलाकार …. इसमें क्या भेद है।
राजेन्द्र : नाम, यश, मान … सब ईश्वर के हाथ में होते हैं।
अनूप : ईश्वर के हाथ में या बाज़ार के हाथ में?
राजेन्द्र : बाज़ार के हाथ में भी होते हैं पर फिर पारिवारिक परिस्थितियाँ भी तो होती हैं। आदमी अपने लिए चुनाव भी तो करता है। भगवान ने जो अंकुश लगाए हैं – उनका इशारा भी तो समझना होता है। और फिर संतुष्टि की बात होती है … जब आवै संतोष धन … सब धन धूरि समान

अनूप : मैं इसलिए पूछना चाहता हूं कि …
राजेन्द्र : समझता हूं, ज्ञान की कई मंज़िलें तय की हैं, छू-परख के देखा भी है। मगर यह अफसोस नहीं कि चौरसिया जी जैसा क्यों नहीं बना। उससे आगे क्या है – उनके साथ स्टेज पर बैठ कर भी देखा है। उनकी आभा-उनकी गरिमा की छाया भी देखी है। शायद बाबा जी के प्रभाव के कारण वैसी डिज़ायर, वैसी मृगतृष्णा नहीं है। भागने की इच्छा नहीं … ठीक है … भाग्य में नहीं होगा शायद…कोई नहीं …अगले जन्म में सही। ऐसी आस्था भी है।

अनूप : क्योंकि मुझे भ्रम होता है कि कहीं भौतिक कारण भी है। जैसे शिवकुमार शर्मा जी (संतूर) काश्मीर से उठे। मुंबई तो मायानगरी है फिर भी सब कलाकार वहीं रहते हैं। चौरसिया जी, ज़ाकिर हुसैन, जसराज। हाँ जोशी जी पूना में रहे। मुंबई संगीत का बड़ा गढ़ रहा है। रिकार्ड से लेकर कैसेट- सब वहीं से जारी होते हैं। इन चीज़ों का भी तो संबंध होता है कला और कलाकार से?
राजेन्द्र : वह तो है, कौन नहीं चाहता कि मैं प्रसिध्द हो जाऊँ, रिकार्ड हों, लेकिन उसके लिए अनुकूल ऐसे चुनाव में कुछ खोना भी तो पड़ेगा। आध्यात्मिकता हमें सिखाती है कि नाम यश से क्या हो जाएगा ! मानसिक स्थिति के आधार पर चाहतें होती हैं। पंडित रविशंकर अंतिम नहीं हैं। उनमें से भी बड़े विद्वान होंगे – हैं भी जो चुपचाप जीवन गुज़ार रहे है। उनकी विद्या में, उनके रियाज़ में कोई कमी नहीं। हाँ, उन्हें वे अवसर नहीं मिले जो मिलने चाहिए थे। तो क्या करें।
अनूप : दूसरा पहलू यह है कि जैसे जालंधर में हरिवल्लभ होता है – पहाड़ी प्रदेश में इस तरह की कोई परंपरा बन सकती है।
राजेन्द्र : छिटपुट परंपराएँ बनी भी हैं। मैं जब जालंधर गया तो वहाँ सुंदर नगर के एक व्यक्ति मिले – गंगाराम – हेड मास्टर रिटायर हुए थे। उन्होंने वहाँ संगीत का एक विद्यालय बनाया और हर साल पं. विष्णु दिगंबर जयंती मनाते हैं। उसमें अच्छे कलाकारों को बुलाते हैं जो उनके सम्प में हैं । यथाशक्ति पत्र पुष्प भी भेंट करते हैं। 1980 में मैं वहां बजा कर आया हूं फिर 86 में फिर गया। तो वह कई सालों से यह हो रहा है।

अनूप : अभी भी?
राजेन्द्र : हाँ। और धर्मशाला में भी हिमाचल शास्त्रीय संगीत सभा का गठन हो चुका है। कोई दस साल तो शायद हो चुके हैं। तो हो रहा है यहाँ भी। हर महीने के दूसरे शनिवार को चामुंडा परिसर में यह होता है। दस बारह या पंद्रह-बीस लोग जो भी होते हैं वे दो-तीन बजे तक गाते बजाते हैं। और मुझे याद है कि जब हम शुरु शुरु में (96-97 में) एक शिवमंदिर था, वहाँ पर शिवरात्रि को कार्यक्रम होता था। वहाँ भी पुराने लोग थे भगवंत जी, पाधा जी, पंडित अमरनाथ कथा वाचक ….। यों इस सब का श्रेय देशबंधु जी को जाता है। वे 50 में जब धर्मशाला आए थे तब कांगड़ा के कथावाचकों ने संगीत का प्रचार-प्रसार किया।
अनूप : वह कैसे? खोल कर बताइये ज़रा।
राजेन्द्र : कथावाचक अपने आप में एक रंगमंचीय कलाकार भी होता था और गायक भी। सब गुण होते थे उसमें तभी तो कई कई घंटों तक बाँध कर रखते थे लोगों को। एक दीनानाथ होते थे कांगड़ा ड्रिस्प्रिक्ट में। उनके जितने भी जजमान थे, सबके घरों में उन्होंने एक पेटी और तबले की जोड़ी रखवाई थी। वे पुराने ढंग से संगीत का स्थाई-अंतरा गाते, जितनी उन्हें ज़रूरत थी बतौर कथा वाचक के। फिर दुगुण – चौगुण करते। तानें वगैरेह नहीं लेते थे। जब देशबंधु शर्मा जी लाहौर से यहाँ आए तो उन्होंने ख्याल गायकी का काफ़ी प्रचार-प्रसार किया। इसके पहले दीनानाथ जी, पंडित अमर नाथ वगैरेह जो कथावाचक थे वे तो बकायदा तान-पलटों के साथ गाते थे। मैंने भी सुना है उन्हें – उनका स्नेह भी पाया है।

अनूप : आप संतुष्ट है इससे।
राजेन्द्र : नहीं, वह तो नहीं हूं। हुआ तो है यहाँ पर कुछ कुछ पर उस स्तर तक तो नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। सीमित सा ही है। और जो है – उसका भी प्रचार-प्रसार बहुत कम होता है।
अनूप : क्या यहाँ के कुछ लोग हैं जो संगीत में निकल रहे हों? कोई प्रतिभा हो, कमिटमेंट हो?
राजेन्द्र : देखिए कुछ युग ही बदल गया है। लोग चाहते हैं कि जल्दअज़ जल्द हम इंडियन आइडल बन जाएँ। संगीत के आधारों की तरफ़ ध्यान कम है। जिन्होंने पढ़ा है, और समझकर कर रहे हैं, वो अलग बात है।जैसे एक रैत साइड का लड़का था। लेकिन अधिकतर तो यह एक बिज़नेस सा हो गया है। तालीम मिल रही है या नहीं – इस पर प्रशनचिन्ह है।

अनूप : यहाँ स्कूल कॉलेजों में तो संगीत विषय है ही?
राजेन्द्र : हाँ, है।
अनूप : पर वहाँ से पढ़कर निकलने वाले आगे जा पाते हैं?
राजेन्द्र : देखिए एक होती है गुरु शिष्य परंपरा … लेकिन स्कूल कॉलेज में समय के बंधन होते हैं। मैंने भी पढ़ा है वहाँ। अगर वहीं तक सीमित रहता तो क्या हो पाता। 40 मिनट के एक पीरियड में कई बार साज़ को टयून करते ही समय समाप्त हो जाता है। और फिर एक बंदिश, दो चार तोड़े, थोड़ा सा कन्क्लूडिंग पोर्शन … और एक राग खत्म हो गया। सेलेबस के हिसाब से तो कई राग हो जाते हैं पर वह तो एक आउटर स्केच जैसा ही होता है।

अनूप : आप को पढ़ा के संतोष होता है?
राजेन्द्र : इनमें कई बच्चे जिनमें प्रतिभा होती है, उन्हें समय देते हैं।यूथ फेस्टीवल की तैयारियाँ होती हैं। हरिवल्लभ भी जाते हैं। एक्सट्रा टाइम भी देते हैं। पर पूरी क्लास के साथ यह संभव नहीं है। यह विषय ऐसा है कि इसमें रुचि वाले सेलेक्टड छात्र-छात्राएँ होने चाहिए।

अनूप : आज जालंधर में ंसगीत संस्थान में पढ़े हैं, ऐसे किसी संगीत विद्यालय की जरूरत है यहाँ?
राजेन्द्र : हाँ, ज़रूरत तो बहुत है हिमाचल में। संगीत ही क्यों, और भी ललित कलाओं के लिए (नाटय, चित्र, नृत्य …..) कोई भी सुविधा ही नहीं है।
पर ऐसी संस्था बने तो पॉलीटिसाइज़ न हो जाए। कि देखने को तो भवन हो, पर भीतर कुछ न हो। या उद्देश्य वह न हो। उनमें वही लोग होने चाहिए जिन्होंने उसमें अपना जीवन लगाया है। समर्पित लोग न होंगे तो कैसे चलेगा।

अनूप : अच्छा यह बताइये कि आजकल रियाज़ की क्या रुटीन रहती है।
राजेन्द्र : संगीत का तो यह है कि एक तो इसका क्रियात्मक पक्ष है – पानी ध्वनि निकालना, एक कम ध्वनि निकालना और एक अध्वन्यात्मक रियाज़। यानी संगीत का सुनना, चिंतन-मनन भी उसी भाव धारा में बहना है। लेकिन आजकल कार्यक्रमों के आधार पर रियाज़ चलता है। क्योंकि अध्यापन भी तो समय की मांग करता है। फिर वहाँ भी सितार ही पढ़ाता हूं। बांसुरी मेरे अपने लिए रह गई है। कार्यक्रम से 15-20 दिन पहले से अपने को टयून करके उसी स्थिति में लाता हूं जहां मैें उसे छोड़ा था। हाँ, पहले की तरह दस दस घंटे रियाज़ नहीं हो पाता। दूसरी प्राथमिकताएँ भी हैं।

अनूप : अच्छा यह बताइये कि क्लासिकल संगीत तो शास्त्रबध्द होता है – पर सुनने वालों को मुक्त भी करता है। तो उसमें स्वच्छन्दता कैसे आती है? यह कोई रसायनिक क्रिया है।
राजेन्द्र : देखिए, रस की उत्पत्ति कब होती है? उसके लिए बहुत कुछ चाहिए होता है। एक तो है कलाकार जो रस पैदा करना चाहता है, स्टेज पर बैठा है, वह किस मन: स्थिति में है, कितनी पकड़, कितना रियाज़ उसमें है। दूसरा श्रोता है – जिन्हें वह प्रेषित कर रहा है – वे भी उसी स्तर से समझ परा रहे हैं या नहीं। तो श्रोता के अनुसार भी कांट छांट होते है। जैसे स्पिक मैके में बड़े बड़े कलाकार जब कॉलेज के छात्रों के सामने होते हैं तो वहाँ वह ज़रूरी नहीं कि कलाकारी और आलापयारी दिखाई जाए। बच्चों को तो लय-ताल सुर सबका मिला जुला आनंद चाहिए। तो खुले दिमाग और परिपक्वता से ढाल लेंगे संगीत को। कलाकार और श्रोता की तारतम्यता से ही रस पैदा होता है। जो गा रहा है, वह दूसरे को समझ आ रहा है या नहीं – उसी रूप में ग्रहण कर रहा है या नहीं। तो जब दोनों में समन्वय होता है तब डांस की स्थिति आती है। कुछ भेद नहीं बचता। राग की अवतारणा सोची-समझी प्रक्रिया नहीं होती कि यह पकड़ है, यह स्वरावलि है, उस समय तो राग का स्वरूप साकार करना है, क्रिएशन है न वो तो। श्रोता भी वहीं चला जाता है। फिर तो आप घंटों बैठे रहिए।

अनूप : जब आप किसी सभा में बजा रहे होते हैं – तो मन में क्या चल रहा होता है?राजेन्द्र : मन में तो यही चल रहा होता है कि जो भी स्वर हो, बीगा हुआ हो। सच्चा स्वर हो। और तभी सच्चा होगा जब पॉलिश किया गया होगा। पहरा बैठाया होगा उस पर। साधना की है तो सारे स्वर चमके हुए होंगे, चाशनी में डूबे होंगे जैसे जीन पर गुलाब जामुन। जैसे शहद – गाढ़ा और स्निग्ध। गुरु जी कहते थे – ”आऐऐ ‘स’ नईं ऐ – एैन्नूं तूं राम कह, ओन कह ऐन्नू।” फिर यह अध्याय से जुड़ जाता है। फिर कुछ चीज़ें जो अनुभव करने की हैं – वाणी से नहीं कह सकते हैं। अनुभव गम्य ही हैं।
तेज : लेकिन गायन का प्रभाव किन चीज़ों पर है – या अच्छा गायन क्या है?
राजेन्द्र : यही कि रियाज़ कैसा है, कल्पना शक्ति कितनी प्रखर है, कंपोज़ीशन क्या है कलाकार गा बजा रहा है तो उसमें भाव कैसे हैं। है तो यह अलग अलग पुर्जों की एसेंबलिंग ही। एसेंबलिंग ‘घड़च्च’ कर के तो नहीं कर सकते। बिल्कुल धीरे धीरे ऐसे मिलाता है कि सारी चीज़ें स्मूदली बैठें। नहीं तो ध्यान टूटता क्यों है – इसीलिए तो – लय-ताल के कच्चेपन के कारण, या स्वर के फीकेपन के कारण। उस्ताद तो वहाँ जो बैठे होते हैं, वही होते हैं सब कुछ। उन्होंने ही रेटिंग देनी है। श्रोता ही समीक्षक होते हैं। सब का मनोविज्ञान समझना होता है। और सचमुच होता है यह कि पता ही नहीं चलता कि मैं इधर हूं। डांस की अवस्था में खुद भी चला जाता है और दूसरे को भी ले आता हैं। जब वादक देखता है कि सुनने वाले को आनन्द आ रहा है तो आदमी और खुभ (डूब) जाता है। लेकिन दूसरा घड़ी देख रहा है, इरीटेट हो रहा है तो ध्यान भंग हो जाता है।

अनूप : कहते हैं संगीत में शब्द नहीं होते, विचार भी नहीं होते – या फिर उस पर निर्भर नहीं होता संगीत। तो यह समाज को क्या देता है।
राजेन्द्र : सबसे बड़ी चीज़ जो देता है वह है मन का रंजन। कोई भी कला यह करती है। इसीलिए इसे फाइन या लालते कहा जाता है कि मन के स्तर पर सुकून मिलता है। संगीत में शब्द हों तो रस परिपाक में मागे देते हैं – पर सच्चे सुरों का अलग ही आकर्षण होता है। हर स्वर की एक फ्रीक्वेंसी है ना ! स की 240, रे की 270 …टयूनिंग फो से देख सकते हैं। मापे होते हैं। पूरे सच्चे स्वर तो तानसेन के ही हो सकते हैं जिनसे चमत्कार हो जाता था। आज उतने सच्चे न भी लगें – 239-242 के आसपास रहते होंगे … श्रुतियाँ भी तो बहुत होती हैं। अभ्यास से मांज कर स्वर सिध्द होते हैं। फिर तो स्वर हाथ जोड़ के खड़ा हो जाता है कि दिशा दो मुझे, कहाँ जाऊँ मैं। कोई भी चीज़ सिध्द होने पर अनुगत हो जाती है। लेकिन इसके लिए बहुत श्रम और तप चाहिए।

अनूप : तो वह केवल मनोरंजन तक ही रहेगा या मनोरंजन के भी अलग अलग स्तर होते हैं। मनोरंजन तो फिल्मी गानों से भी हो जाएगा। बेसुरे गीतों से भी हो जाए शायद।
राजेन्द्र : ऐसा है न, इसीलिए श्रोताओं की भी कई श्रेणियाँ हैं। एक वो है जो फोक गाने वाले को सुन रहा है, एक नौसिखियों को … पर दृष्टि तो तभी जब आप उस लाइन में जाएँगे। संगीत के प्रकार जितने भी हों, आधार तो सबका स्वर ही है – अलंकरण हैं – कर्ण, मुरकी, भीड़, खटका, जमजमा … और यह सब गुरु के कंठ से सीखा जा सकता है। तब तो वही आडियो -विज़ुअल था ना -आज तो और भी साधन है।

अनूप : पहले तो गुरु क ेसाथ रहने का बड़ा महत्व था?
राजेन्द्र : कहते हैं न कि गुरु छ: छ: महीने चिलमें भराते थे। वह अच्छा ही था एक प्रकार से। वे जो साल-साल, दो तीन साल तक नहीं सिखाते थे – मतलब कि शार्गिद उस माहौल से एटयून हो जाता था। और फिर स्वत: ही चीज़ें अपने अंदर प्रकट होने लगती थीं। तो यह भी एक तरीका था।
अब पढ़ाई 40 मिनट के पीरियड में क्या होगी – ऊपर से सिलेवस और छुट्टियाँ —– लेकिन अब हमें भी अनुभव हो गया है और टीचर होने में भी फख्र महसूस होता है। एक टीचर एक चीज़ को कितने तरीकों से समझाता है – कैसे आसान से आसान करता है – और धीरे धीरे मुश्किल की ओर बढ़ता है। अलग अलग आयु वर्ग और समझ के अनुसार खुद को ढालता चलता है।

अनूप : आपको क्या लगता है कि आप बांसुरी वादक हैं या संगीत के अध्यापक?
राजेन्द्र : अध्यापक भी हूं, बांसुरी वादक भी। जब भी कोई प्रोग्राम आएगा तो सौ प्रतिशत दँगा। क्योंकि जो सीखा है, वह तो खत्म नहीं होता। इतना ज़रूर है कि टयूनिंग करने के लिए, रियाज़ करने के लिए कुछ समय ज़रूर चाहिए। उसके बाद आदमी उसी खुमार में आ जाता है –
जिआं जाह्लू ब्याह हुंदा, तां लाड़े जो गलांदे – हुण बणया विण्णु रूप तो वो जो एक रूप हैं न – वो आर्टिस्ट का रूप होना चाहिए। जब हम रियाज़ करेंगे तो वो रूप अपने आप ही आ जाता है। तभी क्रिएशन निकलेगी न !

अनूप : यानी बांसुरी वादक फिर तान लेगा?
राजेन्द्र : अभी भी मुझे कई बार लगता है कि मेरी ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो जाएँ और एक दो साल अपने आप को अप टू डेट कर लँ तो जिस भी स्तर का कलाकार बनना चाहँ – बन सकता हँ। मतलब निराशा नहीं है।

Himachal Mitra is a quarterly publication in the service of Himachali people in India and abroad as a medium of expression and exchange of dialogue amongst themselves. It was born at the initiative of migrant Himchalis in Mumbai who came to Mumbai over the years in search of better life. Uprooted from their own soil by the hardship and scarcity of mountain life they got rooted in this city of islands by better life opportunity. By dint of hard labour, entrepreneurship and professional skills, they have settled down, flourished and helped hundreds of others to flourish and settle down over the years. Himachal Mitra is a tribute to their motherland.

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3 Comments

  1. Great interview! Respected Gurung Sir was my music teacher when I was studying in K.V. Dalhousie during 1984-89. I have learned playing Harmonium and Tabla from him; and even participated in lots of competitions / youth festivals. He is a very kind hearted and dedicated teacher. I wish to meet him someday. Thanks for everything, Sir. Best regards.

  2. says: ANUJ THAPA

    Very well interviewed. Although there are some copy errors, but formation of the interview, soul behind it, is magical.
    I appreciate truthfulness of Gurung sir, and thank him for sharing his story with us. It is very inspiring to all of us.
    A good initiative by My Himachal. May in future we will read more articles like this on Himachalis.
    My heartiest congratulations!!!

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