अल्पसंख्यक की परिभाषा ?

 यह वाकई हास्यापद है कि 57 साल के गणतंत्र के बावजूद आज भी यह परिभाषित नही है कि अल्पसंख्यक  कौन है और ओबीसी कितने…| यह भी तय नही है उनकी कसौटियां क्या है और उनका निर्धारण किस आधार पर होना चाहिए|  नतीजतन एक तरफ न्यायालयों में व्याख्या की होड है, तो दूसरी तरफ सियासत अपने-अपने नजरिए से इस ऊहापोह का फायदा उठाने में जुटी है | लिहाजा नागरिक के संवैधानिक अधिकारों सरीखे बुनियादी सवाल पर आज भी हमारी व्यवस्था में अराजकता और छिद्रों की स्थिति है, लेकिन हमें इस बार विवादो को संविधान के पुरखों के जिम्मे नही मढ देना चाहिए कि उन्होने अल्पसंख्यक को संविधान में साफतौर पर परिभाषित नही किया है | क्या हमारी सरकारों और संसद ने अपने आवश्यकतानुसार संविधान में 100 से अधिक संशोधन नही किए है संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 तक में स्पष्ट उल्लेख है कि भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक अपनी मौलिक, सांस्कृतिक परंपराओं और विरासत को संरक्षित रख सकते है | वे अपने समुदायिक शिक्षण संस्थान बगैरह स्थापित कर सकते है | अनुच्छेद 30 में तो उनके विशेषाधिकारों का भी उल्लेख है, लेकिन उनके बावजूद पेंच अब भी वही है कि अल्पसंख्यक किसे माना जाए? हालांकि एक सविधान पीठ ने अनुच्छेद 30 की व्याख्या करते हुए उसे बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार वाले अनुच्छेद 19 से ज्यादा मह्त्वपूर्ण माना था, लेकिन अल्पसंख्यक के मद्येनजर भ्रम और विभिन्न व्याख्याएं फिर भी मौजूद है | 1992-93 मे भारत सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर पांच समुदायों को अल्पसंख्यक वर्गीकृत किया था -मुसलमान, ईसाई, बौद्ध्, सिख और पारसी | लेकिन सवाल है कि जिस तरह पंजाब में आर्य समाजी जैन और पूर्वोतर राज्यों के ईसाई बाहुल्य इलाको में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल है, तो राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट क्यों नही किया गया कि अल्पसंख्यक का दर्जा क्षेत्र-सापेक्ष होगा | एक और सवाल,बल्कि विसंगति कि देश की आबादी के मात्र  0.4 फीसदी जैन धर्म समुदाय को सर्वोच्च न्यायालय ने भी अल्पसंख्यक मानने से इनकार क्यों कर दिया है? हाय-तौबा मचाने के कई आधार है, सिर्फ मुसलमानो के मद्देनजर ही दुहत्थड नही पीटना चाहिए | दरअसल एक ही राज्य के अलग अलग जिलों में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आंकडे विरोधाभासी है, तो चिन्हित करने का आधार क्या होगा-राष्ट्रीय्, राज्य्, क्षेत्र या जिस इलाके में वह समुदाय बसता है न्यायपालिका को एक बार फिर हस्तक्षेप करना पडेगा, क्योंकि ऐसे तटस्थ और ईमानदार कार्य के लिए राजनिति से अपेक्षा नही की जा सकती | इस बार न्यायपालिका तमाम संवैधानिक दस्तावेजों को खंगालते हुए, कमोबेश ऐसी परिभाषा दे, जिससे अल्पसंख्यक सरीखे मुद्दों पर समाज को विभाजित करने वाली हरकते न की जा सकें |

(दिव्य हिमाचल से साभार)

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1 Comment

  1. As for as minoritism in India is concerned it is the brainchild of our politicians. We have adopted a Constitution long back in 1950, which catagorically laid down in Art. 14 ‘Right to Equality’. By indulging in minoritism are we not discriminating against majority and thereby violating the provisions of our Constitution. Dr. Subrahmaniam Swamy had rightly pointed out that Muslims have been ruler class for centuries and so have been Christians. They have been discriminating against Hindus for centuries and now they are hankering for minority status to get reservations. I feel there should not be any discrimination on the basis of cast, creed or religion at all. It is deviding the nation. Same is the case with reservation. Every caste is trying to get it enlisted as OBC to get reservations. After about aquarter of century of throwing out the foreign rulers we are creating other elite classes such as SC, ST, OBC and religious minorities. Is not it shameful that we still can not say that all Indians are equal in every field ? If not then we should hang our heads in shame ? All those who are hankering for reservations should keep in mind that they are trying to get crutches for themselves while the field is open for them to run shoulder to shoulder with others.

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