जो मौत के बारे में ज्यादा सोचेगा, नहीं चल पाएगा: मान सिंह चम्बियाल

इस बार हम अपने पाठकों के लिए एक नया संसार लेकर आए हैं… चुनौतियों से खेलने वाला, रोमांचक यात्राएं करने वाला एक नौजवान… मान सिंह चम्बियाल … जो पृथ्वी की विराट काया और उसकी तीखी ढलानों, खड़ी ऊंचाइयों को अपनी गाड़ी के पहियों से महसूस करता है… जो कई सालों से देश भर की कार रैलियों में भाग लेता आ रहा है और पिछले चार सालों से हिमालयन कार रैली में हिमालय से टक्कर ले रहा है। हिमाचल मित्र के लिए बातचीत करने सुमनिका और अनूप सेठी उनके घर गए। विस्तार से उनके अनुभव सुने। बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण अंश आपके लिए…

(सन 2008 के एक इतवार की शाम। मुंबई के मलाड उपनगर में चंम्बियाल साहब का फ्लैट। घर में मानसिंह और उनकी पत्नी नीना ही हैं। माता-पिता हिमाचल गए हुए हैं, बच्चे नीचे सेहन में खेलने। चाय नाश्ते के बाद टेप रिकॉर्डर टेस्ट करके एक तरफ सोफे पर हम दोनों, हमारे सामने के सोफे पर नीना और हम दोनों के बगल की खिड़की के आगे दीवान पर मान सिंह बैठे हैं… बातचीत के लिए तैयार…)

सुमनिका : रैली में हिस्सा लेने की शुरुआत कैसे हुई?
मान सिंह : शायद सन् 1994-95 की बात है कि मेरा दोस्त रोहित कंसारा रैली में जाया करता था और मैं कभी कभी उनके साथ जाता, उनके मददगार की तरह।

सुमनिका : मददगार? यानी किस रूप में?
मान सिंह : पहले जब रात मेें रैली हुआ करती पूना और नासिक की तो मैं शनि रवि को उनके संग गाड़ी में पेट्रोल भरता, सामान उठाता, टायर बदलता। और जरूरत पड़े तो उनकी मालिश भी करता।

अनूप : ओह! जैसे तारा रंप पंम फिल्म का नायक करता है?
मान सिंह : (हंसते हैं) वो फिल्म तो मैंने नहीं देखी पर सभी ड्राइवर ऐसे ही सीखते हैं। और फिर शायद उस फिल्म में रेसिंग है, रैली नहीं। … हां तो मैं कह रहा था कि शुरूआत ऐसे हुई थी। और फिर अगले साल नासिक रैली में मैंने नेविगेटर की भूमिका की।

सुमनिका : वो क्या होता है?
मान सिंह : यानी ड्राइवर के बगल में बैठना और उसे दाएं बाएं, नीचे ऊपर सारे संकेत देते रहना। इसे टयूलिप पढ़ना कहते हैं।

अनूप : क्या वो नक्शे के हिसाब से पढ़ते हैं या याद रहता है वो रस्ता?
मान सिंह : नहीं, ये संकेत बनाने पड़ते हैं पहले से। ड्राइवर और उसका नेविगेटर, जिस रोड पर गाड़ी दौड़ानी होती है, उस पर एक दो बार धीमी गति से गाड़ी चलाते हैं और ड्राइवर जो जो बताता जाता है, उसे नेविगेटर लिखता जाता है।

सुमनिका : यानी यह तैयारी करने जैसा है?
मान सिंह : जी। जैसे आप हिमाचल जाएं, और नादौन से देहरा आना हो तो ड्राइवर लिखाएगा – स्ट्रेट फिफ्टी x ईजी लेफ्ट x ईजी राइट x हंप x डाउनहिल x डबल कॉशन। अगली बार थोड़ा तेज आएंगे, 60-70 की स्पीड में। नेविगेटर पढ़ेगा, डाइवर चलाएगा। टैस्ट हो जाएगा कि लिखे गए संकेत रास्ते से मैच हो रहे हैं या नहीं। यूं पेस नोट बन जाता है। तो नासिक में पहली बार मैं वील के पीछे बैठा और मेरे दोस्त को लगा कि मैं उससे तेज था। और फिर अगली बार वो मेरा नेविगेटर बना। यानी हम दोनों भूमिकाएं बदल सकते थे। वैसे हिमालयन रैली सबसे कठिन होती है। होने को तो सीधे मैदानी रास्तों पर भी एक- दिन की चैम्पियनशिप होती है।

सुमनिका : अच्छा! क्या हिमालयन रैली सबसे कठिन है?
मान सिंह : अगर आप कठिनाई का 1 से 10 तक का माप बनाएं तो हिमालयन रैली को साढ़े नौ का अंक मिलेगा।

सुमनिका : यह तो हुई सीधे रैली में आने की बात। लेकिन वो कहां से शुरू हुआ जिसे गाड़ी से मुहब्बत की शुरूआत कह सकते हैं?
मान सिंह : यह तो मेरे पिता के जरिए ही हुआ क्योंकि हमारे पिता बाई रोड हमें हिमाचल ले जाते थे, बचपन में जब जब छुट्टियां आतीं। उन्होंने सारा हिमाचल यूं ही घुमाया। मणिकर्ण, मनाली, चंबा, डल्हौजी.. सब जगह बाई रोड…

सुमनिका : गाड़ी कब सीख ली थी?
मान सिंह : गाड़ी मैंने नवीं या दसवीं तक सीख ली थी। लाइसेंस बाद में बनता रहा। और फिर बिजनेस भी आटोमोबाइल का ही था।

अनूप : हां, यह भी तो एक बात है।
मान सिंह : शायद खून में ही मिल गया होगा यह सब।

सुमनिका : तो क्या रिश्ता है आपका गाड़ी से? क्या वह आपके लिए खिलौने की तरह होती है?
मान सिंह : हां। गाड़ी चलाता हूं तो समझता हूं कि उसे कहां दर्द है.. क्या प्राब्लम है.. और जब कभी गैराज में जाते हैं तो मैं खुद बताता हूं कि यह यह खराबी है.. यह यह काम करो।

सुमनिका : वैसे हिमालय के अलावा यह रैलियां और कहां कहां होती हैं?
मान सिंह : नासिक रैली होती थी। वो अब बंद हो गई है। पूना वाली भी बंद होने वाली है। कर्नाटक में चिकमंगलूर में होती है। चंडीगढ़ से होती है हिमायल की तरफ। और नागालैंड की होती है।
सुमनिका : अच्छा यह बताइए कि जब आटोमोबाइल कंपनियों से इन रैलियों का संबंध है तो स्पॉन्सरशिप की कमी क्यों है?
मान सिंह : क्योंकि इनकी रेसिंग जैसी पापुलैरिटी नहीं है। मीडिया कवरेज भी तो बहुत कम है। रेसिंग एक ग्राउंड में होती है। दर्शक भी वहीं बैठते हैं। उसी ट्रैक में बार बार घूमना होता है। कैमरे एक जगह लगाना आसान होता है। जबकि हमारी रैली तो कहां से कहां चली जाती है। पहाड़ों पर, दूर दूर.. कैसे दिखा पाएंगे। वो विजुअल नहीं बन पाती। हम बस अपनी कार पर ब्रांड नाम लगाते हैं जो टीवी पर रिकॉर्ड नहीं हो पाते। यहां तो कहीं बीस किलोमीटर पर कैमरा होगा। जबकि यह रेसिंग से ज्यादा कठिन स्पोर्ट है। मीडिया कवरेज कम है तो स्पॉन्सर भी कम मिलते हैं।

सुमनिका : आपको रैली ही ज्यादा पसंद आई? वही क्यों चुनी?
मान सिंह : शायद इसमें जो रोमांच है, जो चुनौती है, उसी की वजह से।
सुमनिका : क्या कहीं हिमालय का आकर्षण है? पहाड़ बुलाते हैं?
मान सिंह : हां शायद! पर कुछ अजीब सा होता है। जब मैं मुंबई में बैठा होता हूं, तो हिमालय के बारे में सोचता रहता हूं। पर जब मैं वहां पहुंच जाता हूं तो मुंबई की याद सताती है। … कि यार इतने आराम से सोए थे घर में .. क्यों आ गए इतनी सख्त सर्दी में ठिठुरने… हर सुबह चार बजे उठना पड़ता है, खाने का ठिकाना नहीं, रात को बारह-बारह बजे सोते हैं, गाड़ी को रिपेयर करना होता है। सात दिन में थक कर चूर हो जाते हैं।
अनूप : वहां कुछ इंतजाम होते हैं?
मान सिंह : बहुत कम। इतनी उंचाई पर तो सभ्यता के चिह्यन भी दिखाई नहीं पड़ते।
सुमनिका : रैली किन दिनों में होती है?
मान सिंह : अक्तूबर का मौसम अच्छा होता है। बर्फ गिरना बस शुरू ही होने वाला होता है। बरसात में तो रास्ते बहुत खराब हो जाते हैं। अभी जो रैली हुई वो तीसरे ही दिन बंद हो गई थी क्योंकि स्नोफॉल शुरू हो गई थी। बाद के पांच दिन कैंसिल कर दिए गए थे।
सुमनिका : तो फिर रिजल्ट कैसे निकाले?
मान सिंह : वहीं तक के आधार पर।
सुमनिका : अभी तक आपने कितनी रैलियों में हिस्सा लिया?
मान सिंह : तीन।
सुमनिका : पूरी कितनी हुईं?
मान सिंह : बाकी की दो पूरी हुईं। पर इस बार ….
सुमनिका : इस बार तो आपने छलांग ही लगा दी खाई में… वो जो अनुभव रहा, वो बताइए
मान सिंह : (कुछ देर की खामोशी जैसे उन क्षणों को याद करते हुए) इस बार शायद कुछ ओवर कॉन्फिडेंट थे। शिमला से चले थे कोटखाई की तरफ। रास्ते में गुम्मा गांव आया। वहां से सेब के बाग और एल्पाइन पेड़ों का जंगल है। उनके बीच से होकर 33 किलामीटर का एक स्ट्रेच था। जहां वो खत्म होने वाला था, उस गांव का नाम था उमलदार। रैली के 45 लोगों में से कुल्लू के सुरेश राणा सबसे तेज थे। दूसरे नंबर पर मेरा टाइमिंग था।
अनूप : यह दिन का वक्त था? कितने बजे शुरू किया था चलना?
मान सिंह : हां सुबह सवा सात बजे फ्लैग ऑफ हुआ था। गुम्मा से शुरू हुआ था। शिमला से तो छ: बजे निकले थे। यह स्टेज पूरी हुई। फिर दूसरा था खदराला से बरदाश। वहां पलटी गाड़ी।
सुमनिका : कैसे हुआ यह सब?
मान सिंह : घाटी थी। यह तो अच्छा हुआ कि पहले ही हो गया। आगे तो घाटी और गहरी थी।
अनूप : हुआ क्या?
मान सिंह : मुझे लगता है कि शायद टायर पंक्चर हुआ पीछे वाला… स्पीड लगभग 85 की थी। गाड़ी उतराई पर जा हरी थी। टर्न किया तो दाईं तरफ गहरी घाटी थी। वहीं शायद आठ बार पलटते हुए गाड़ी नीचे पहुंच गई और रुक गई।
सुमनिका : फिर? रेस्क्यू वाले आए?
मान सिंह : नहीं, क्रेन वाले आए थे।

सुमनिका : तो क्या आप लोगों को उन्होंने निकाला?
मान सिंह : नहीं। हम लोग तो खुद ही ऊपर आ गए थे। सड़क किनारे बैठकर धूप सेकने लगे। हम लोग पानी पी रहे थे और चॉकलेट खा रहे थे। मैं आने जाने वालों को ओ. के. साइन दिखा रहा था कि सब ठीक ठाक है। क्योंकि सब आती जाती गाड़ियों के ड्राइवर पूछ रहे थे कि क्या हुआ। अगर मुझे कुछ मदद की जरूरत होती तो मैं मैडिकल साइन दिखाता।
सुमनिका : क्या आपको पता चल गया था कि कुछ गड़बड़ है?
मान सिंह : हां पता तो चला था पर इसमें आप हमेशा सेफ महसूस करते हैं, क्योंकि हम लोग गाड़ी में एक केज यानी पक्के पिंजरे में होते हैं। 95 प्रतिशत सुरक्षित होते हैं। 5 प्रतिशत चांस बचता है।
अनूप : तो?
मान सिंह : हमने विदड्रॉ कर लिया। गाड़ी तो क्रेन से उठाई गई।
सुमनिका : इस हादसे में डर नहीं लगा?
मान सिंह : नहीं।

सुमनिका : (उनकी पत्नी से) आपको?
नीना : हमें तो पता ही नहीं था न। बस बाद में फोन आया कि गाड़ी का पार्ट खराब होने की वजह से विदड्रॉ कर लिया है।
मान सिंह : मैंने दरअसल डैडी को फोन कर दिया कि गाड़ी का सस्पेंशन टूट गया है। आइ एम आउट ऑफ दि रेस। तो उन्होंने कहा कि अगले साल देखी जाएगी। शायद हमारा नेविगेटर थोड़ा अनाड़ी था। वो ठीक से कॉल्स नहीं दे पा रहा था। लेट हो जाता था। संकेत हमारी स्पीड से मैच नहीं कर रहे थे।
सुमनिका : जब आप हिमालयन रैली में जाते हैं तो वहां के लैंडस्केप को देख महसूस कर पाते हैं?
मान सिंह : जब रेकी करते हैं, तब देख पाते हैं। या जिस दिन थोड़ी देरी तक ही चलना हो और दोपहर में खत्म हो जाए तो नजारे देखने का मजा आता है।
सुमनिका : कैसे नजारे?
मान सिंह : रोहतांग के उस तरफ पेड़ पौधे नहीं हैं। स्नो डेजर्ट हैं। लोग भी बहुत कम हैं।
सुमनिका : गांव वगैरह…
मान सिंह : हां मैं सबसे ऊंचे गांव में रहा हूं, किब्बर नाम के । वहां एक स्कूल भी है। 128 परिवार रहते हैं। किब्बर से अगर वर्ड व्यू लें तो आठ किलोमीटर पर चीन है।
सुमनिका : रैली में ठहरने वगैरह क्या क्या इंतजाम होता है?
मान सिंह : काजा में तो होटल है, केलंग के आगे नहीं है। बीच में एक जगह आती है पाटसियो। यह ट्रांजिट आर्मी कैंप है। सर्दियों में यह कैंप भी बंद हो जाता है। वहां ठहराते हैं। खाना-वाना भी फौज वाले देते हैं। एक रैली में वहां फंस चुका हूं। बारा लाचा पास में.. 17300 फुट उंचाई पर.. पाटसियो से आगे.. लेह की ओर जाते हुए.. यह इलाका जम्मू कश्मीर में पड़ता है।

अनूप : तब क्या हुआ था?
मान सिंह : हमारा रात का पड़ाव पांग में था। यह भी एक ट्रांजिट कैंप है। वहां से हमें तांग लुंग ला पास से घूम कर लौटना था। वहां पहुंचे तो बर्फ गिरनी शुरू हो गई। दिन में ही। किसी तरह पांग वापस पहुंचे। सुबह आर्गेनाइजर कहने लगे कि निकलने की कोशिश करते हैं। लाइन बना कर चल पड़े। 10-15 आगे थे, वो तो निकल गए, पर जो पीछे रह गए, वो नहीं जा पाए। फंस गए। 25-30 गाड़ियां। हमें मनाली पहुंचना था। लेकिन बारा लाचा में फिर टायर फिसलने लगे। हम फंस ही गए थे। गाड़ियां साइड पे लगा दी गईं। आर्मी के स्टैलियन में बैठकर निकलना पड़ा तब जाकर 11 बजे पैटसियो पहुंचे। वहां छ: सात फुट बर्फ गिर चुकी थी। आज भी याद है कि कमरा खूब गर्म था। हीटर भी था। एक कमरे में आठ आठ लोग रुके थे। कुछ को तो सिपाहियों के बैरकों में रहना पड़ा। मैंने अपने कमरे में मुंबई के लोगों को बुला लिया था। वहां खूब अच्छा वक्त बीता। दो दिन तक तो खाना-वाना बढ़िया मिला, लेकिन फिर शायद कर्नल को डर लगने लगा कि उनके लोगों के लिए स्टॉक कम न हो जाए इसलिए उन्होंने हमें अंडे वगैरह देने शुरू किया। अनाज अपने लोगों के लिए बचाने लगे। ब्रेड नहीं दी।

वहां से निकल कर हम केंलग आए। दो रात रुके क्योंकि रोहतांग पास बंद था। किसी ने बताया कि अब खुलने ही वाला है। ग्लेशियर काटने वाला लगा था। रात में वो रास्ता साफ कर रहा था। तब जाकर हम वहां से निकले और मनाली पहुंचे।
सुमनिका : क्या कभी किसी गांव में या लोगों के घरों में रहने का मौका मिलता है या आप लोगों के लिए अलग ही इंतजाम होते हैं?
मान सिंह : अगर कहीं गाड़ी फंस जाए तो ही। वैसे वहां तो गांव भी नहीं हैं। लेह से पहले बारा लाचा क्रॉस करने के बाद दारचा आखिरी गांव है जहां ढाबे हैं। केलंग के आगे भागा नदी पर एक जगह टैक्सी और ट्रकों के लिए इंतजाम है। उसके बाद पैटसियो में आर्मी कैंप है। हालांकि लोग कहते हैं कि आसपास गांव हैं क्योंकि घोड़ों पर आते जाते लोग दिख जाते हैं। पर हमें तो गांव दिखते नहीं।
सुमनिका : तो आपके लिए ड्राइविंग का अनुभव ही प्रमुख होता है? पूरा दिन तो उसी में जाता होगा। थ्रिल ही रहती है या उस जगह से भी जुड़ते हैं?
मान सिंह : हां जल्दी पहुंच जाएं तो देखने को मौका मिल जाता है। फिर पहाड़ में जाकर वहां के स्पर्श से अलग तो नहीं रह सकते।
सुमनिका : आपकी यात्रा और जो लोग मणीमहेश, कैलाश मानसरोवर की यात्राओं में निकलते हैं, उनमें क्या फ है?
मान सिंह : हम तो बहुत उंचाई की बात कर रहे हैं। मणीमहेश से बहुत ऊंचे। जहां सिर्फ फौज के लोग ही जाते हैं। यह रेंज बढ़ती जाती है। मण्ीमहेश धौलाधार रेंज पर है। उसके ऊपर शिवालिक आते हैं। वहां दर्रे हैं। मैं 18000 फुट की बात कर रहा हूं। तांग लुंग ला लगभग 17800 फुट की ऊंचाई पर है। ताबो, किब्बर भी नीचे ही रह जाते हैं।

सुमनिका : ऐसे में ऑक्सीजन वगैरह की दिक्कत नहीं होती?
मान सिंह : ऑक्सीजन सिलेंडर साथ ले जाते हैं पर वहां शरीर धीमा पड़ जाता है। अगर टायर पंक्चर हो जाता है तो बहुत समय लगता है लगाने में। जो पंक्चर आठ मिनट में लगता था, उसके लिए बत्तीस मिनट लगते हैं। सांस फूलने लगती है।

अनूप : अच्छा यह बताइए कि जो इस गेम में आना चाहे वो क्या करे? क्योंकि यह काम तो खासा टेक्निकल है?
मान सिंह : अभी तक कोई रैली स्कूल नहीं है। भविष्य में हो तो बहुत ही अच्छा होगा। मैं कोशिश कर रहा हूं कि कुछ शुरू हो पाए।

सुमनिका : तो यह सब तकनीक ही है या जोश और स्पिरिट की बात है?
मान सिंह : बात तो स्पिरिट की ही है। पर सिर्फ उससे भी तो काम नहीं चलेगा न।

सुमनिका : तो नए लोग क्या करें?
मान सिंह : वे लोग पहले तो बाई रोड ट्रैवल करना शुरू करें। और एक बिंदास सोच हो। जो मौत के बारे में ज्यादा सोचेगा, नहीं चल सकता। शायद इसीलिए आर्मी और एयरफोर्स के लोग ज्यादा आते हैं।

सुमनिका: अच्छा धन और रिसोर्स के बारे में बताइए।
मान सिंह : हां पैसा तो इसमें चाहिए। रैफ्टर किट ही 2 लाख का होता है। गाड़ी को बदलना पड़ता है। स्पांसरर के बिना मुश्किल है। FAI और MAI से लाइसेंस लेना पड़ता है। और एक बड़ी चीज, जो शायद हर बड़ी चीज में चाहिए। यानी गुरू। ऐसा कोई हो जो चीजों को अपने अनुभव के फ्रेम में देख सके। खाई में गिर जाने को भी जो देख सके।

सुमनिका : रैली के बाद आपको कैसा लगता है?
मान सिंह : बहुत अच्छा लगता है। शब्दों में कहना मुश्किल ही है। यह सब जीवन भर याद रहता है। मानो यहां हमें जिंदा रहने और सर्वाइवल की टे्रनिंग मिलती है। अगर बर्फ मेें फंस जाओ तो टायर जला लो। अगले दिन दूसरा जला लो। क्या खाओ कैसे खाओ। डीहाइड्रेशन से बचने के लिए पानी पीना होता है।

सुमनिका : मतलब यह पूरी जिंदगी की टे्रनिंग है?
मान सिंह : हां। बर्फ गिरती है तो बर्फ को हाथ से पकड़ कर बॉल बनाते हैं। हाथों को कवर करने के बजाए बर्फ को छूते रहना चाहिए। इम्यून होने का तरीका है यह। नहीं तो नंबनैस आने लगती है। फ्रास्ॅटबाइट होने लगती है। यह सब खतरनाक होता है।

सुमनिका : आपके पिता तो आपको हिमाचल में घुमाते रहे। हिमाचल से कैसा रिश्ता है आपका?
मान सिंह : हम लोग छुट्टियों में अपने मामा के पास जाते थे। मामा हमें फिट रखने के लिए खेतों में काम करवाते थे। नदियों में तैरने ले जाते थे। मैंने खेतों में हल भी चलाया है। वो सब कुछ मेरे भीतर है।

सुमनिका : इस रिश्ते और रैली में क्या कोई संबंध है?
मान सिंह : (सोच में पड़ गए से) शायद अलग अलग हो…

सुमनिका : ऐसा तो नहीं कि अनकॉन्शस में पहाड़ में जाने की अर्ज छुपी हो?
मान सिंह : हां.. पता नहीं.. पर जब मैं पहाड़ों में जाता हूं और जब पहाड़ आ जाते हैं तो में ड्राइवर को कहता हूं कि तुम यहां मेरी जगह आओ। अब मैं चलाता हूं। यह एक बात है। मुंबई से नासिक जाते हुए कसारा घाट पर भी ऐसा ही भाव आता है। कुछ रिश्ता तो होगा ही।

सुमनिका : डर को कैसे जीतना होता है या फिर लगता ही नहीं?
मान सिंह : डर तो सबको लगता है। लेकिन डरने और न डरने के बीच संतुलन बनाना पड़ता है। जो मुझसे चार मिनट पीछे है डर उसमें भी है, डर मुझमें भी है। पर मैं डर पर विजय पाता हूं और स्पीड बढ़ाता हूं। टाइमिंग की बात है। स्पीड बड़ी बात बन जाती है।

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